Wednesday 16 July 2014

रास्ते से भटकता एक नेक मकसद  

   Sunday,Jun 15,2014

जब से 'आइबी' नामक खुफिया एजेंसी की एक रिपोर्ट के हवाले से यह बात पता चली है कि विदेशी पैसे की मदद से काम करने वाले कई गैर सरकारी संगठन भारत के विकास को मंद करने और सामाजिक शांति को नष्ट करने में जुटे हैं, हड़कंप सा मच गया है। इस विषय में नई सरकार पर यह आरोप लगाना संभव नहीं कि वह अपने विपक्षियों को कठघरे में खड़ा करने के लिए कोई साजिश रच रही है क्योंकि जिस जांच पड़ताल के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की गयी है वह कांग्रेस-संप्रग सरकार के कार्यकाल में ही निबटाई गयी है। इसी कारण इस वक्त दिग्विजय सिंह एवं राशिद अल्वी जैसे अति चतुर-मुखर अधिकृत प्रवक्ता भी बगलें झांकते नजर आ रहे हैं और मामले की नजाकत और गंभीरता को कुबूल कर रहे हैं।
हकीकत यह है कि पिछले दशकों में 'एनजीओ' का कारोबार बहुत तेजी से बढ़ा है। जनता के सबलीकरण और सत्ता के विकेन्द्रीकरण-हस्तांतरण के नाम पर सरकार ने खुद इनको बढ़ावा दिया है। इसे अपने आप में गलत नहीं कहा जा सकता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की तरह अपनी इच्छानुसार किसी संगठन की सदस्यता हमारे बुनियादी अधिकारों की सूची में शामिल है। अपनी रुचि के अनुसार किसी भी स्वैच्छिक-गैर सरकारी संगठन से जुड़ना या उसके कामकाज में भाग लेना देशद्रोह या कोई दूसरा जुर्म नहीं समझा जा सकता। कई ऐसे गैर सरकारी संगठन हैं जिन्होंने समाज कल्याण एवं राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन सभी के नाम गिनाने की जरूरत नहीं विवेकानंद द्वारा गठित रामकृष्ण मिशन और आजादी की लड़ाई के युग में स्थापित सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसायटी' से लेकर जाने कितने गैर सरकारी संगठन अपनी अलग पहचान बना चुके हैं। इस घड़ी चिंता इनके 'क्षय' या अवमूल्यन को लेकर नहीं।
जिन संगठनों का जिक्र हो रहा है उनमें 'ग्रीन पीस', 'ऑक्सफैम' तथा 'पीयूसीएल' प्रमुख हैं। आइबी की इस रिपोर्ट के पहले भी इनके बारे में आशंकाएं व्यक्त होती रही हैं। 'ग्रीन पीस' बहुराष्ट्रीय कंपनी की तरह काम करने वाली अपार साधनों से संपन्न संस्था है जिसकी गतिविधियां मुख्यत: पर्यावरण के संरक्षण पर केंद्रित हैं। समस्या यह है कि इसके तेवर शांतिपूर्ण संवाद वाले नहीं लड़ाकू मुठभेड़ वाले रहते हैं जो अक्सर हिंसक झड़पों का रूप लेते हैं। यह शक कई बार सार्वजनिक हुआ है कि ऊर्जा उद्योग से जुडे़ न्यस्त स्वार्थ आपसी प्रतिद्वंद्विताजनित संघर्ष की रणनीति के तहत इसका इस्तेमाल करते हैं। यह बात भी छिपी नहीं कि पर्यावरण के मुद्दे का इस्तेमाल विश्व व्यापार संगठन पर कब्जावर ताकतें विकासशील देशों के खिलाफ शुल्केतर बाधा के रूप में कुशलता से करती हैं। निश्चय ही बात सीधी और सरल नहीं। अनेक स्वदेशी पर्यावरण आंदोलनों के नेताओं को जिस मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया वह शीतयुद्ध के महारथी साम्यवाद विरोधी फिलीपींस के पूर्व राष्ट्रपति की स्मृति में स्थापित है जिनका खास नाता सामाजिक न्याय अथवा जनतंत्र से नहीं था। यह 'सम्मान' पत्रकारिता, जनसेवा आदि के क्षेत्र में भी दिया जाता है। यह मात्र संयोग नहीं समझा जा सकता कि 'विजेता' ज्यादातर वही प्रकट हुए हैं जो सरकार की नीतियों के मुखर विरोधी हों। हमारा मकसद इस एक पुरस्कार की आलोचना नहीं- हमारा रोना तो उस मानसिक गुलामी को ले कर है जिसके चलते हम 'अंतरराष्ट्रीय' सनद की नुमाइश करने वालों को सिर पर बैठा इसके नकदीकरण की खुली छूट दे देते हैं। जब ऐसा कोई व्यक्ति एनजीओ बनाता है तो वह सर्वव्याप्त अनौपचारिक वर्ण व्यवस्था के अनुसार सर्वश्रेष्ठ माना जाने लगता है। कहां से उसकी निधि आ रही है, खाते की पड़ताल होती है या नहीं, कहीं करों की छूट का दुरुपयोग तो नहीं हो रहा जैसे सवाल उठाने वाला मूर्ख समझा जाता है।
आपातकाल की समाप्ति के बाद से मानवाधिकारों की हिफाजत का दावा करने वाले एनजीओ की फसल तेजी से लहलहाई है। 'एमनेस्टी इंटरनेशनल' और 'एशिया वॉच' का अनुसरण करते 'पीयूसीएल' तथा 'पीयूडीआर' की सक्रियता बढ़ी है। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि इनके हस्तक्षेप से एकाधिक बार उत्पीड़ितों को राहत मिली है और देर से ही सही न्यायिक प्रक्रिया हरकत में आई है परंतु यह भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि खूंखार आतंकवादियों ने बखूबी इनका इस्तेमाल रक्षा कवच के रूप में किया है। जिस तरह इन्होंने अपने निशाने चुने हैं उनको लेकर भी मन में तरह तरह के शक पैदा होते हैं। इन संगठनों का स्वरूप पेशेवर आंदोलन कारियों के जमावड़े लगने लगा है।
अंत मे इस बात की याद दिलाने की जरूरत बची रहती है कि इस चुनौती को इतना विस्फोटक बनाने में संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने बड़ा रोल अदा किया। इसमें शामिल सलाहकारों में अति वामपंथी विचारधारा के साथ सहानुभूति रखने वाले पूर्व नौकरशाह भी थे और सक्रिय नक्सली समर्थक भी। इस मंडली की महत्वाकांक्षा समानांतर सरकार चलाने की या नीतियों का विकल्प प्रस्तुत करना नहीं वरन गैर जिम्मेदार तरीके से असंतोष तथा अराजकता की मानसिकता को पनपाना ही कहा जा सकता है।
श्रीमती इंदिरा गांधी की जब भी आलोचना होती या उनकी कोई असफलता सामने आती थी तो वह इसके लिए विदेशी हाथ को जिम्मेदार ठहराती थी। इसके लिए उनकी खिल्ली भी उड़ाई गयी। पर यह यह ना भूलें कि तानाशाही वंशवादी संस्कार के साथ साथ उनका देशप्रेम असंदिग्ध था। उनकी शंका बेबुनियाद नहीं थी। इस दुखद सच से कतराया नहीं जा सकता कि अमेरिका और उसके पिछलग्गू पश्चिमी देशों के सामरिक हितों के अनुसार सक्रिय विदेशी गैर सरकारी संगठन भारत के राजनीतिक तथा आर्थिक जीवन में नाजायज हस्तक्षेप के लिए देशी एनजीओ बेहिचक इस्तेमाल करते हैं। इनके तमाम प्रतिरोध स्वत: स्फूर्त नहीं आयातित लगते हैं। एनजीओ की दुनिया में आमदनी और खर्च की पड़ताल टाली नहीं जानी चाहिए। एहतियात यह जरूरी है कि निर्दोष ईमानदार एनजीओ दलगत पक्षधरता के चलते गेहूं के साथ घुन की तरह ना पिस जाएं!
-प्रो पुष्पेश पंत [स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू]
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एनजीओ  

 Sunday,Jun 15,2014

संगठन

वृक्ष कबहुं न फल भखै, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर।

परोपकार की भावना प्रकृति में हर जगह दिखाई देती है। प्रकृति खुद के लिए कुछ नहीं करती है, आदिकाल से वह सृष्टि के कल्याण के लिए अनवरत जुटी हुई है। धरती पर प्रकृति के सबसे बड़े उपासक होने के चलते शायद हम भारतीयों के मन में निस्वार्थ परोपकार की भावना कूट-कूट कर भरी है। अपनी इस भावना और संस्कृति से हम दुनिया के अन्य देशों को सदियों से सीख देते आ रहे हैं। धीरे-धीरे समाज के कल्याण की नेकनीयती के वशीभूत कुछ लोगों ने संगठन बनाकर लोगों की सेवा करना शुरू किया। रामकृष्ण मिशन जैसे तमाम संगठनों ने मानव और मानवीयता के लिए एक मिसाल कायम की। पिछले कुछ दशकों से ऐसे संगठनों की संख्या तेजी से बढ़ी। वैश्वीकरण के इस दौर में किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की तर्ज पर काम करने वाले ये संगठन और ज्यादा पेशेवर होते गए। अब इनको एनजीओ यानी गैर सरकारी संगठन कहा जाने लगा।
विघटन
कभी नेक मकसद से शुरू किए गए गैर सरकारी संगठनों ने जिस तेजी के साथ उपलब्धियों का इतिहास रचा, उसी अनुपात में उन पर आरोपों की झड़ी भी लगने लगी। विदेशी चंदों पर आश्रित कुछ संगठनों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित साधने के आरोप लगे। विकास कार्यो में बाधा पहुंचाने और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में संलग्न रहने तक के भी आरोपों से दो-चार होना पड़ा। हाल ही में खुफिया ब्यूरो द्वारा गैर सरकारी संगठनों के कामकाज से संबंधित सरकार को सौंपी रिपोर्ट इसकी एक बानगी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि विदेशी चंदा पाने वाले कुछ गैर सरकारी संगठन विकास कार्यो की राह में रोड़ा बने हुए हैं और इनके क्रियाकलापों से देश की अर्थव्यवस्था को भारी चपत लग रही है।
संतुलन
खुफिया ब्यूरो की यह रिपोर्ट भले ही कुछ गैर सरकारी संगठन के कामकाज पर अंगुली उठा रही हो, लेकिन ऐसी ही संस्थाओं द्वारा समाज के चहुंमुखी विकास के लिए किए जा रहे प्रयासों को नकारा नहीं जा सकता है। जो काम सरकारें नहीं करती या करना नहीं चाहतीं, उसे ये संस्थाएं पूरी निष्ठा के साथ निभाती हैं। रही आरोप की बात तो कुछ बुद्धिजीवियों का यह कहना भी कम तर्कसंगत नहीं लगता कि संप्रग सरकार के कार्यकाल वाली खुफिया ब्यूरो की यह रिपोर्ट तत्कालीन सरकार और उसकी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद पर भी कई सवाल खड़े करती है। खुफिया ब्यूरो की मौजूदा रिपोर्ट कुडनकुलम परियोजना के विरोध प्रदर्शनों में विदेशी ताकतों के होने के आरोप लगने के बाद गठित जांच का नतीजा है। ऐसे में तमाम बुद्धिजीवियों, गैर सरकारी संगठनों के प्रमुखों से लैस सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली एनएसी उन धरना प्रदर्शनों के दौरान आंख-मूंद कर क्यों बैठी रही? क्या संप्रग सरकार में समानांतर सत्ता चलाने वाली स्वनामधन्य स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं से भरी एनएसी का ऐसे मामलों में निष्क्रिय रहना सवाल नहीं खड़ा करता। ऐसे में देश के विकास में रोड़ा अटकाने जैसे आरोपों के आलोक में गैर सरकारी संगठनों की कार्यशैली की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
जनमत
क्या आइबी की इस रिपोर्ट से सहमत हैं कि विदेशी ताकतें एनजीओ के कंधे पर बंदूक रखकर विकास में बाधा पहुंचाती हैं?
हां 87 फीसद
नहीं 13 फीसद
क्या देश के विकास में रोड़ा बनने वाले गैर सरकारी संगठनों को विदेशी सहायता लेने से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए?
हां 93 फीसद
नहीं 07 फीसद
आपकी आवाज
न रहेगा बांस, न रहेगी बांसुरी। अगर देश के विकास में रोड़ा बनने वाले गैर सरकारी संगठनों को विदेशी सहायता लेने से प्रतिबंधित कर दिया जाए तो वे धन का अभाव हो जाने के कारण अपने गलत मंसूबों को अंजाम नहीं देंगे। -राजेशकुमार@जीमेल.कॉम
आइबी रिपोर्ट की पूरी जांच होनी चाहिए और दोषी एनजीओ, संस्थाओं पर कठोर कार्रवाई होनी चाहिए क्योंकि देश के विकास के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता है। -लक्ष्मी.कुकरेती121@जीमेल.कॉम
यह एक गंभीर मामला है, विदेशी ताकतों के आगे कठपुतली बन रहे इन एनजीओ पर लगाम लगानी चाहिए। क्योंकि यह किसी देशद्रोह से कम नहीं है। -शरद.1@जीमेल.कॉम
विदेशी स्त्रोतों से चलने वाले एनजीओ सदैव सवालों के घेरे में रहे हैं। देश के कुछ आंदोलन साफ रेखांकित करते हैं कि इनके मंसूबे काफी खतरनाक हो चले हैं। -धर्मेद्र कुमार दूबे438@जीमेल.कॉम
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गैर सरकारी संगठन  

  Sunday,Jun 15,2014

विश्व बैंक ने एनजीओ यानी गैर सरकारी संगठनों को कुछ इस तरह से परिभाषित किया है। 'ऐसे निजी संगठन जो कुछ इस तरीके की गतिविधियों से जुड़े होते हैं जिनसे किसी की परेशानी दूर होती हो, गरीबों के हित को बढ़ावा मिलता हो, पर्यावरण को सुरक्षित रखा जाता हो, मूलभूत सामाजिक सेवाएं मुहैया कराई जाती हों या सामुदायिक विकास का जिम्मा उठाया जाता हो'। विश्व बैंक के प्रमुख दस्तावेज 'वर्किग विद एनजीओज' में विस्तारित परिभाषा के अनुसार एनजीओ किसी ऐसी संस्था को कहते हैं जो गैर लाभकारी हो और सरकार से स्वतंत्र हो। मूलत: नैतिक मूल्यों पर आधारित ऐसी संस्थाएं पूर्ण या आंशिक रूप से दान या चंदे और स्वैच्छिक सेवाओं पर आश्रित होती हैं। पिछले दो दशक से एनजीओ क्षेत्र साल दर साल तेजी के साथ पेशेवर होता जा रहा है।
काम एक नाम अनेक: भिन्न-भिन्न स्रोतों में ऐसी संस्थाओं को अलग-अलग नामों से जाना और समझा जाता है। कहीं पर इन्हें सिविल सोसायटी आर्गनाइजेशन , कहीं पर निजी स्वैच्छिक संगठन (पीवीओज), चैरिटी, नॉन प्रॉफिट चैरिटीज, चैरिटेबल आर्गनाइजेशन तो कहीं पर इन्हें थर्ड सेक्टर आर्गनाइजेशन जैसे अन्य नामों से बुलाया जाता है।
गठन में तेजी: पिछली सदी के आठवें दशक के बाद सामाजिक सरोकार से जुड़े मसलों को एक निर्णायक मोड़ देने की पाक-साफ नीयत से ऐसे गैर सरकारी संगठनों के गठन की बाढ़ आ गई। ये संस्थाएं उस खाली स्थान को भरने के लिए आगे आने लगीं जिनको सरकारें या तो करना नहीं चाहती थीं या फिर वे कर नहीं सकती थीं। विश्व बैंक के 'वर्किंग विद एनजीओज' दस्तावेज के अनुसार पिछली सदी के आठवें दशक के मध्य में एनजीओ सेक्टर ने विकासशील और विकसित देशों में समान रूप से अप्रत्याशित वृद्धि हासिल की। एक अनुमान के मुताबिक कुल विदेशी विकास संबंधी सहायता राशि का करीब 15 फीसद से ज्यादा हिस्सा ऐसे एनजीओ की मदद से पहुंचाया जा रहा है।
सेवाभावना: इन संगठनों का एकमात्र मकसद सामाजिक सेवा भावना है। लाभ कमाना इनका मकसद नहीं होता। गैर सरकारी संगठन राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होते हैं, लेकिन वास्तविकता में ऐसा होना बहुत दुर्लभ होता है। इसके कई कारण होते हैं। सरकारों, अन्य संस्थानों, कारोबारी और औद्योगिक घरानों के अलावा अन्य स्रोतों से लिया जाने वाला चंदा इसकी प्रमुख वजह माना जाता है।
उत्प्रेरक: गैर सरकारी संगठनों के उद्भव और विकास को तेजी कई कारणों से मिली। एंथ्रोपोलॉजी के प्रोफेसर रिचर्ड रॉबिंस ने अपनी किताब 'ग्लोबल प्रॉब्लम्स एंड द कल्चर ऑफ कैपिटालिज्म' में इन वजहों पर रोशनी डाली है।
* शीत युद्ध के खात्मे के बाद गैर सरकारी संगठन चलाना अपेक्षाकृत आसान हुआ
* बेहतर होती संचार सुविधाएं खासकर इंटरनेट जिसने एक नए वैश्विक समुदाय के सृजन में मदद की और देशों की सीमाओं से परे समान विचार वाले लोगों के बीच एक जुड़ाव पैदा किया।
* संसाधनों में बढ़ोतरी, बढ़ती पेशेवर प्रवृत्ति और गैर सरकारी संगठनों में रोजगार के अधिक और अच्छे मौके।
* अपनी विशेष क्षमता के चलते मीडिया ने वैश्विक समस्याओं के प्रति लोगों को जागरूक किया। इसके चलते लोगों की सरकारों या उस समस्या से निजात दिलाने वालों से अपेक्षाओं में इजाफा हुआ।
* एक व्यापक, नव उदार आर्थिक और राजनीतिक एजेंडे का अस्तित्व में आना। आर्थिक और राजनीतिक विचारधाराओं में परिवर्तन होना जिसके चलते सरकारों और सहायता एजेंसियों के अधिकारियों का समर्थन गैर सरकारी संगठनों को मिला।
भारत में एनजीओ की स्थिति: जाने-माने वकील एमएल शर्मा ने अन्ना हजारे के एनजीओ हिंद स्वराज ट्रस्ट की वित्तीय अनियमितता के संबंध में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की। मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस एचएल दत्तू की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने तत्कालीन एडीशनल सोलीसीटर जनरल सिद्धार्थ लूथरा से कहा कि इस मामले में सीबीआइ का इस्तेमाल करके यह पता लगाया जाए कि देश में कितने ऐसे एनजीओ काम कर रहे हैं? उनकी वित्तीय स्थिति का विवरण क्या है और क्या वे आयकर रिटर्न जमा कर रहे हैं?
600 लोगों पर एक एनजीओ: फरवरी, 2014 में सीबीआइ ने यह विवरण अदालत के सामने रखा। आंध्र प्रदेश, बिहार, दिल्ली, हरियाणा, कर्नाटक, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश ने अपनी जमीन पर काम करने वाले एनजीओ की संख्या के संबंध में कोई जानकारी नहीं दी।
इसके बावजूद भी अन्य राच्यों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर इन संगठनों की संख्या 13 लाख पहुंच गई। इस संख्या के आधार पर न्यूनतम अनुमान पर जब पूरे देश को आंका गया तो एनजीओ की संख्या 20 लाख हुई। आपको जानकर ताच्जुब होगा कि
1.2 अरब लोगों के जिस देश में 943 लोगों पर एक पुलिस है वहां 600 लोगों पर एक एनजीओ काम कर रहा है।
प्रमुख राच्यों पर एक नजर
राच्य -- कुल एनजीओ
उत्तर प्रदेश -- 5,48,194
केरल -- 3,69,137
मध्य प्रदेश -- 1,40,000
महाराष्ट्र -- 1,07,797
गुजरात -- 75,729
विदेशी चंदा: देश में मौजूद कुल 20 लाख एनजीओ सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट, ट्रस्ट एक्ट जैसे कानूनों के तहत पंजीकृत किए जाते हैं।
साल -- विदेशी चंदा पाने वाले एनजीओ -- रकम (करोड़ रुपये में)2009-10 -- 22401 -- 10435.22
2010-11 -- 22993 -- 10343.58
2011-12 -- 21804 -- 10581.19
सर्वाधिक दानदाता देश: भारत में काम कर रहे गैर सरकारी संगठनों को जिन देशों ने सर्वाधिक विदेशी चंदा दिया उनके विवरण इस प्रकार हैं।
प्रमुख देशों पर एक नजर
देश -- करोड़ रुपये
अमेरिका -- 3838.23
यूके -- 1219.02
जर्मनी -- 1096.01
इटली -- 528.88
नीदरलैंड्स -- 418.37
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बेहतर निगरानी तंत्र की जरूरत   

 Sunday,Jun 15,2014

खुफिया ब्यूरो की हालिया रिपोर्ट के बाद विदेशी फंड पाने वाले एनजीओ चर्चा में हैं। एफसीआरए 2010 की धारा 3(1) के अनुसार कोई भी संगठन जो राजनीतिक प्रकृति वाला हो वह विदेशी पूंजी नहीं ले सकता है। हालांकि राजनीतिक प्रकृति को परिभाषित भी किया गया है लेकिन यह व्यापक नहीं है जिसकी वजह से सरकारी अधिकारियों द्वारा इसके दुरुपयोग की गुंजाइश बन जाती है। कई गैर सरकारी संगठन प्रशासन, मानवाधिकार और पर्यावरण मुद्दों पर काम कर रहे हैं। उनका राज्य में मौजूद कई कारकों के साथ सीधा संघर्ष है जिनमें बड़ी कंपनियां भी शामिल हैं। ऐसे में यह संभावना है कि ऐसी शर्तो के जरिये उनका शोषण किया जा सकता है।
हम सभी इस बात से सहमत होंगे कि भारत में एनजीओ सबसे कम नियमन वाला क्षेत्र है और ऐसे में यह पूरी संभावना होती है कि संघ बनाने के अधिकार का दुरुपयोग करते हुए किसी समूह विशेष या दुश्मन देश के हित को साधा जा सके। हालांकि सरकार विरोधी होना और राष्ट्र विरोधी होने के बीच में एक अंतर है। एक जीवंत लोकतंत्र संघ या संगठन बनाने और किसी भी ऐसे कदम के विरोध करने की ताकत देता है जिससे किसी क्षेत्र की शांति या पर्यावरण को खतरा हो सकता हो। हमारा संविधान विभिन्न अभियानों, प्रदर्शनों और रैली आदि के जरिए अपने नागरिकों को मुखर होने और अपनी मांग को रखने का अधिकार देता है जिन्हें हम राष्ट्र विरोधी कदम नहीं कह सकते हैं।
इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि समाज की अन्य व्यवस्थाओं की तरह ही एनजीओ भी भ्रष्ट हो सकते हैं और कुछ लोगों के हितों को साधने के लिए इनका दुरुपयोग भी किया जा सकता है। इसके लिए उनकी गतिविधियों को ठप करने की जगह एक बेहतर निगरानी तंत्र की जरूरत है। नए कंपनी विधेयक में कंपनियों को अपने मुनाफे में से 2 फीसद हिस्सा कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व संबंधी गतिविधियों में खर्च करने का निर्देश दिया गया है जिसकी वजह से भी कई एनजीओ और फाउंडेशन का गठन किया जाने लगा है। जिनका अगर नियमन न किया जाए तो वे भ्रष्टाचार के संभावित स्नोत हो सकते हैं।
एनजीओ को भारत आने वाले विदेशी पूंजी में से शायद ही 2 फीसद तक की रकम मिलती है ऐसे में अगर सरकार विदेशी पूंजी प्रवाह पर और इसके गलत इस्तेमाल को नियंत्रित करना चाहती है तो उसे एक समग्र नीति पर काम करना होगा। विदेशी फंड मिलने की वजह से कुछ गैर सरकारी संगठनों पर अंगुली उठाने के कदम को निश्चित रूप से भारत और विदेश में एक भेदभावपूर्ण कदम के रूप में देखा जाएगा। सरकार को भी विकास से जुड़े क्षेत्र के दिलचस्प तथ्यों का अध्ययन जरूर करना चाहिए कि देश में पंजीकृत होने वाले कुल एनजीओ में से बेहद कम एनजीओ को ही विदेशी धन प्राप्त होता है लेकिन उनका असर काफी व्यापक है और वे सरकार द्वारा वित्त पोषित एनजीओ के मुकाबले बेहतर नतीजे दे रहे हैं। इसकी बुनियादी वजह यह है कि सरकारी योजनाओं में काफी भ्रष्टाचार है जिसकी वजह से सरकारी विभागों से वैध पूंजी पाना लगभग असंभव है।
भारत एक मध्यम आय वर्ग वाला देश बनने की राह पर है लेकिन यह कई दानदाता एजेंसियों की प्राथमिकता में नहीं है। शासन से जुड़े मुद्दों के लिए पैसे नहीं हैं और कंपनी विधेयक में प्राथमिकता क्षेत्र का जिक्र नहीं है। जब हम भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की बात करते हैं तब यह हमारी सरकार का कर्तव्य है कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी लड़ाई में गैर सरकारी संगठनों को शामिल करे। जनता और सरकार के बीच सेतु के रूप में एनजीओ को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और उन्हें सत्ता विरोधी संस्थान के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। वे ही सरकार को सही फीडबैक दे सकते हैं। यह बात और है कि भले ही सरकार को वह नहीं भाए।
-आशुतोष कुमार मिश्र [कार्यकारी निदेशक, ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया]
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विकास का कोई एक रोडमैप नहीं 

  Sunday,Jun 15,2014

पिछले चंद रोज की घटनाएं हमारे जैसे संगठनों और आंदोलनों के लिए चिंता का विषय हैं, जब यह महसूस किया जाता है कि हमारे बुनियादी संवैधानिक अधिकारों का हनन किया जा रहा है। खुफिया ब्यूरो की एक रिपोर्ट के बाद यह भावना उपजी है। उसमें गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) पर देश के विकास में बाधक बनने और सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर को दो-तीन प्रतिशत तक गिराने का आरोप लगाया गया है। उस रिपोर्ट में इन संगठनों की निष्ठा और कामकाज पर भी सवाल उठाते हुए कहा गया है कि ये राष्ट्रीय हितों की बजाय पश्चिमी हितों का समर्थन करते हैं। विदेशी फंड पाने के कारण ये ऐसा करते हैं।
आइबी रिपोर्ट में कुछ बुनियादी खामियां हैं। उसी आधार पर रिपोर्ट की भावना और इंटेलिजेंस पर सवाल उठ रहे हैं जिसमें अन्य संगठनों के साथ ग्रीनपीस, इंडिया को लक्षित किया गया है। आइबी रिपोर्ट ने सिविल सोसायटी को बेहद स्पष्ट संदेश दिया है कि सरकारी नीतियों से इतर विकास के संबंध में यदि किसी के विचार भिन्न हैं तो उस पर राष्ट्र विरोधी नीतियों का समर्थन करने का आरोप लग सकता है। यह विचित्र और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के विसंगति के रूप में अधिकारवादी रवैया लगता है। गांधी जी ने कहा है, 'वास्तविक लोकतंत्र में हर पुरुष एवं स्त्री को अपने विषय में सोचने के लिए सिखाया जाना चाहिए।' ऐसे में ग्रीनपीस, इंडिया जैसे संगठनों के लिए यह बेहद सहज है कि यह जरूरी नहीं कि विकास के संबंध में उनका नजरिया हमेशा सरकार और कारपोरेट हितों का पक्षधर ही हो।
ग्रीनपीस इंडिया का हमेशा से मानना रहा है कि पर्यावरण और अर्थव्यवस्था दोनों दो छोरों पर एक दूसरे से पृथक नहीं हो सकते। यदि एक देश समावेशी और टिकाऊ विकास चाहता है तो इन दोनों को एक दूसरे पर निर्भरता के रूप में देखा जाना चाहिए। पिछले दशक में ग्रीनपीस इंडिया के अभियान इसी केंद्र बिंदु पर आधारित रहे हैं। भले ही चाहे वह ऊर्जा या खाद्य सुरक्षा का क्षेत्र रहा हो।
विकास का मौजूदा मॉडल विशेष रूप से सबसे निचले तबके को शामिल नहीं कर पाने समेत कई मोर्चो पर विफल रहा है। देश के ऊर्जा मॉडल को देखने पर पता चलता है कि करीब 30 करोड़ लोग बिजली की सुविधा से वंचित हैं। ग्रीनपीस इंडिया ने विक्रेंद्रित नवीकरण ऊर्जा का वैकल्पिक मॉडल पेश किया। यह न सिर्फ बिजली संकट समस्या का समाधान है बल्कि इसमें स्त्रोतों का ज्यादा उपयोग भी नहीं होता और इस कारण यह भविष्य की पीढि़यों के लिए टिकाऊ भी है। इस संदर्भ में हम यदि बहुमूल्य जंगलों की कीमत पर उपलब्ध नई कोयला आधारित प्रोजेक्टों का विरोध करते हैं तो केवल इस कारण क्योंकि हमारे पास बेहतर विकल्प उपलब्ध है।
सीएसडीएस के पांच हजार किसान परिवारों पर किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि उनमें से 76 प्रतिशत किसानी छोड़ना चाहते हैं। स्पष्ट है कि कारपोरेट द्वारा प्रेरित रसायन आधारित मॉडल किसानों के जीविकोपार्जन में बहुत उपयोगी नहीं रहा है। इसीलिए ग्रीनपीस जब जीएम फसलों का विरोध करता है तो वह इसलिए क्योंकि पारिस्थितिकी कृषि का विकल्प उपलब्ध है जोकि न सिर्फ किसानों की बड़े बहुराष्ट्रीय संगठनों से सहायता पर निर्भरता को समाप्त करता है बल्कि कृषि को अधिक लाभदायक बनाता है। यहां तक कि विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पर्यावरण क्षरण से भारत की 5.7 प्रतिशत जीडीपी का नुकसान हुआ है। ऐसे में ग्रीनपीस इंडिया पर जो लोग भारत विरोधी होने का आरोप लगा रहे हैं, उसके जवाब में यही कहा जा सकता है कि हमारी विरासत के अंग और गरीब किसानों के जीविकोपार्जन के साधन समृद्ध जैव विविधता से भरपूर घने वनों की सुरक्षा से बड़ा कोई राष्ट्रीय कार्य नहीं हो सकता। गौरवशाली भारतीय होने के साथ हम वैश्विक नागरिक भी हैं क्योंकि जब पर्यावरण की समस्याओं की बात आती है तो यही कहा जा सकता है कि यह हर राष्ट्र की समस्या है।
-नेहा सहगल [सीनियर कैंपेनर, ग्रीनपीस इंडिया]
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   एनजीओ-एनजीओ का फर्क   


   नवभारत टाइम्स | Jun 17, 2014

देश में सक्रिय स्वयंसेवी संगठनों पर आई खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट ने एक नया विवाद शुरू कर दिया है। इसे सरकार द्वारा एनजीओ की लगाम कसने का संकेत बताया जा रहा है। कुछ हलकों में इसे 'विरोध की आवाज को दबाने की तैयारी' भी कहा जाने लगा है। मगर आशंकाओं, कुशंकाओं से अलग हट कर निष्पक्षता से देखा जाए तो इसमें संदेह नहीं कि देश में सक्रिय कुछ बड़े एनजीओ विरोध के नाम पर चलने वाले फर्जीवाड़े का दूसरा नाम बनते जा रहे हैं। वे न केवल विदेशों से करोड़ों रुपए का डोनेशन लेते हैं बल्कि उसे खर्च करने के तरीकों को लेकर किसी तरह का उत्तरदायित्व स्वीकार नहीं करते। बड़े-बड़े प्रॉजेक्टों के विरोध का आधार भी अक्सर तर्क कम और जिद ज्यादा दिखने लगी है। कुछ मामलों में विरोध करने वाले एनजीओ के पीछे विदेशी निहित स्वार्थों की सीधी भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता। मगर सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि देश में कई सारे ऐसे छोटे-छोटे एनजीओ भी हैं जो स्थानीय संसाधनों के बल पर जनता को अपने साथ लेते हुए उसके हकों की लड़ाई लड़ते हैं। चाहे यह लड़ाई सूचना के अधिकार के जरिए लड़ी जा रही हो या फिर किसी परियोजना में लोगों के पुनर्वास को लेकर। दिक्कत सबसे बड़ी यह है कि जब कोई कथित तौर पर लिबरल सरकार आती है (उदाहरण के लिए यूपीए सरकार) तो वह एनजीओ की भूमिका को सकारात्मक मानते हुए उन्हें तमाम तरह की छूट देती है। इस छूट का फायदा करोड़ों-अरबों का खेल खेलने वाले फ्रॉड एनजीओ को मिल जाता है। इसके उलट जब कोई प्रो-मार्केट सरकार इन पर अंकुश लगाने का प्रयास करती है तो उसका नुकसान जनता के हितों की लड़ाई लड़ने वाले छोटे, साधनहीन एनजीओ को उठाना पड़ता है। जरूरत इस बात की है कि सत्ता तंत्र दोनों तरह के एनजीओ के बुनियादी फर्क को समझे। इस फर्क को ध्यान में रखते हुए ऐसे कदम उठाए जिनसे इस सेक्टर में चल रहा फ्रॉड तो बंद हो, लेकिन जनहित में उठाई जा रही आवाजों को दबाया न जाए। विरोध के पीछे मौजूद निहित स्वार्थों को किनारे करना जरूरी है, लेकिन इसमें छिपी वास्तविक चिंताओं का निदान और भी जरूरी है। 
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 कठघरे में एनजीओ  

  नवभारत टाइम्स | Mar 25, 2014

पिछले कुछ समय से गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) लगातार चर्चा में रहे हैं। यूपीए-1 के दौरान गठित नैशनल अडवाइजरी काउंसिल में उन्हें अहम भूमिका प्राप्त हुई, फिर अन्ना आंदोलन और आम आदमी पार्टी के गठन के जरिए समाज और राजनीति में उनके सीधे दखल ने लोगों का ध्यान खींचा, और फिर 'सत्यमेव जयते' जैसे कार्यक्रम के जरिए उनके कामकाज के कुछ बारीक पहलुओं का पता चला। लेकिन हाल में सरकार ने जो कहा है, उससे इस सेक्टर के कामकाज को लेकर गंभीर सवाल उठ खड़े हुए है। इन संगठनों की विदेशी फंडिंग और उसके इस्तेमाल पर गृह मंत्रालय की ताजा वार्षिक रिपोर्ट में यह आशंका जताई गई है कि विदेश से जुटाए गए पैसे गलत हाथों में पड़ सकते हैं। इनका इस्तेमाल मनी लॉन्ड्रिंग और आतंकवाद के लिए सकता है। इसलिए रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि इन संगठनों को एक स्वच्छ और पारदर्शी प्रणाली के तहत लाने की कोशिश होनी चाहिए। इनके बारे में एक और चिंताजनक बात यह सामने आई है कि इनमें से कई ने वार्षिक इनकम टैक्स रिटर्न दाखिल नहीं किया है। कुछ समय पहले गृह राज्यमंत्री आरपीएन सिंह ने राज्यसभा में जानकारी दी थी कि विदेशी सहायता प्राप्त करने वाले कुल 16,756 गैर-सरकारी संगठनों ने एफसीआरए कानून के तहत वर्ष 2011-12 के लिए अपना वार्षिक आयकर रिटर्न दाखिल नहीं किया। यह बात होम मिनिस्ट्री की आशंका को ठोस आधार देती है। देश में आम चुनाव के माहौल को देखते हुए इस बात का डर बना हुआ है कि इनके जरिए विदेशी पैसे के बल पर इलेक्शन को प्रभावित किया जा सकता है। गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से किसी देश में पैसे पहुंचाने और वहां के सिस्टम को अपने तरीके से मोड़ने की घटनाएं दुनिया में होती रही हैं। गौरतलब है कि स्वयंसेवी संगठन विदेशी अंशदान के रूप में हर साल 11,500 करोड़ रुपए से अधिक की धनराशि जुटा रहे हैं। एनजीओ सेक्टर को लेकर कई तरह की शिकायतें आने के बाद पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को इनके बारे में जानकारी जुटाने के लिए कहा। उसने छानबीन करके बताया कि इस वक्त देश में करीब 20 लाख एनजीओ सक्रिय हैं- यानी करीब 600 लोगों पर एक एनजीओ। सोचा जा सकता है कि इतने सारे एनजीओ आखिर कर क्या रहे हैं। अगर वाकई ये अपने दावे के मुताबिक काम कर रहे हैं तो भारत की ज्यादातर जमीनी समस्याएं अब तक खत्म हो जानी चाहिए थीं। रोजी-रोटी और स्वास्थ्य का संकट किसी के लिए नहीं होता। सरकारें चैन की बंसी बजा रही होतीं। गैर सरकारी संगठनों को पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का मानवीय मुखौटा कहा गया है। बाजार जितनी तेजी से फैलता है उसी के समानांतर ये भी काम करते हैं और विरोध की आवाजों को मंद करते जाते हैं। कहा जा रहा है कि हमारे देश में ये भ्रष्टाचार का एक परिष्कृत तरीका बन गए हैं। नौकरशाहों ने अपने रिश्तेदारों के नाम पर एनजीओ खड़े किए हैं, जो समाजसेवा की आड़ में भरपूर कमाई कर रहे हैं। वक्त आ गया है कि अब इस सेक्टर की ऊपर से नीचे तक ओवरहॉलिंग की जाए। 
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एनजीओ या धंधेबाजी    

 नवभारत टाइम्स | Mar 22, 2014,

अपने चरित्र में सरकारी हैं ये
राजेंद्र सिंह, 'जल बिरादरी' के संस्थापक अध्यक्ष
सबसे पहले तो हमें 'एनजीओ' और स्वैच्छिक संस्थाओं में फर्क करना होगा। आप जिन गड़बड़ियों की बात कर रहे हैं, वे उन एनजीओ में है, स्वैच्छिक संस्थाओं में नहीं। स्वैच्छिक संस्थाएं तो सामाजिक काम करती हैं। और एनजीओ वे हैं, जो कभी जीओ अर्थात सरकार नहीं बन पाए। उनके मन के भाव सरकारों जैसे ही होते हैं। वे प्रॉजेक्ट की तरह अपने काम करते जाते हैं। आजादी के बाद के अधिकांश एनजीओ सरकारी ढांचे में रहते हुए, अफसरों ने खुद बनाए या बनवाए। ये ऐसे अफसर थे, जो सरकार में रहते हुए मनमर्जी से काम नहीं कर पा रहे थे। धीरे-धीरे वे खुद इस एनजीओ ढांचे में आते चले गए। ज्यादातर एनजीओ सरकारी लोगों ने ही खुलवाए। जाहिर है, उनका हश्र वही हुआ, जो सरकारों का हुआ। जैसे आज की सरकारों को लेकर अविश्वास बढ़ रहा है, वैसे ही आज के एनजीओ भी अविश्वसनीय हो चले हैं। और यह अविश्वास तो आज हमारे चारों तरफ फैला हुआ है। असल में जिनके साध्य की स्पष्टता नहीं होती, उनके सामने सिद्धि की प्रक्रिया भी नहीं होती। वे दुनिया की हवा में बहते चले जाते हैं। आजादी के समय जैसी भूमिका अधिकांश स्वयंसेवी संगठनों ने निभाई थी, वैसी भूमिका आज के एनजीओ नहीं निभा सकते। फिर भी आज कुछ संगठन ऐसे जरूर हैं जो कारगर भूमिका अदा कर रहे हैं। हमारा संगठन राजनीतिक दलों और नेताओं से पूछता है कि पहले खाना चाहिए या पीने के लिए पानी? क्या नालों में बदल गई नदियां दोबारा बनाओगे? हम वाटर सिक्योरिटी बिल लाना चाहते हैं। लोकादेश कार्यक्रम के तहत हम जगह-जगह जाकर लोगों को जागरूक करते हैं।
कुछ भ्रष्ट अफसरों ने किया बदनाम
जोसेफ गाथिया, प्रेक्सिस रिसर्च से संबद्ध
ग्लोबलाइजेशन के साथ भारत में एनजीओ सेक्टर का भी विस्तार हुआ है। विदेशी धन आया तो कई तरह के विचार भी आने लगे। इसमें आईटी का बड़ा योगदान है। लेकिन कुछ ऐसे तत्व भी सामाजिक कार्यों से जुड़े, जिन्हें भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों का समर्थन था। यहीं से भारत में नए प्रकार के भ्रष्टाचार की शुरुआत हुई। जब कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत बड़ी कंपनियों ने कई स्तरों पर पैसा देना शुरू कर दिया, तब कर्मठ और जमीन से जुड़े कार्यकर्ता पीछे धकेल दिए गए और उनकी जगह ले ली फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वालों और शहरी सोशल वर्कर्स ने। इसके बावजूद उन एनजीओ में कम भ्रष्टाचार है जहां स्थानीय स्तर पर डेमोक्रेटिक प्रक्रिया अपनाई जाती है। तीसरी दुनिया के एनजीओ में जब भ्रष्टाचार की खबरें फैलने लगीं तब इंटरनैशनल एनजीओ संगठनों ने एक नया मापदंड तैयार किया। इसकी शुरुआत 1995 में वर्ल्ड सोशल समिट से हुई। इससे विदेशी धन पाने वाले एनजीओ में करप्शन काफी हद तक रुक गया, लेकिन स्थानीय सरकारों से धन पाने वालों में पारदर्शिता का पैमाना न होने के कारण भ्रष्टाचार बढ़ता गया। विदेशी धन को कंट्रोल करने के लिए जो नियम बनाया गया है, उसके चलते स्थानीय या जिला स्तर के अधिकारी इन योजनाओं से भी सरकारी प्रोजेक्टों की तरह कुछ चाहते हैं। ऐसा न हो पाने पर मीडिया में इस प्रकार के संगठनों के प्रति तरह-तरह की दुर्भावनाएं फैलाई जाती हैं। विदेशी धन के मामले में सीधे हेडक्वार्टर को रिपोर्ट किया जा सकता है और तुरत कार्रवाई होती है जबकि सरकारी धांधली की कोई सुनवाई ही नहीं होती।
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संदेह का हथियार   

   Saturday, 14 June 2014

जनसत्ता 14 जून, 2014 : प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गई आइबी यानी खुफिया ब्यूरो की एक रिपोर्ट में विदेशी अनुदान प्राप्त करने वाले स्वयंसेवी संगठनों को देश की आर्थिक सुरक्षा के लिए खतरनाक करार देते हुए यह तक कहा गया है कि जीडीपी में दो से तीन फीसद की कमी के लिए वे जिम्मेवार हैं। ऐसा लगता है कि यह रिपोर्ट बहुत जल्दबाजी में तैयार की गई है। जीडीपी का दो-तीन फीसद का आंकड़ा मामूली नहीं होता। इस नुकसान का आकलन आइबी ने कैसे कर लिया, यह चौंकाने वाली बात है। विचित्र है कि इस रिपोर्ट का एक हिस्सा सितंबर 2006 में दिए नरेंद्र मोदी के एक भाषण की प्रकाशित रिपोर्ट के एक अंश से हूबहू मिलता-जुलता है। इस साम्य से जाहिर है कि आइबी ने अपनी रिपोर्ट एक खास पूर्वग्रह से तैयार की, कि वह पूरी तरह प्रधानमंत्री के सोच के अनुकूल हो। इसमें विदेशी अनुदान से चलने वाले स्वयंसेवी संगठनों पर यह आरोप लगाया गया है कि वे विकास को बाधित करते हैं। इस सिलसिले में कोयला आधारित बिजली संयंत्रों और एटमी ऊर्जा के खिलाफ उनके अभियानों का हवाला दिया गया है। पर बहुत सारे पर्यावरणविद भी इस तरह की मुखालफत और ऊर्जा के वैकल्पिक तरीकों की वकालत करते रहे हैं, जिनका किसी विदेशी अनुदान से कोई लेना-देना नहीं है। ऊर्जा नीति और विकास नीति पर अलग सोच के कारण अगर किसी को राष्ट्र-विरोधी करार दिया जाएगा, तो इसकी जद में देर-सबेर और भी बहुत-से लोग आ सकते हैं! 
यह पहला मौका नहीं है जब किसी सरकार ने पर्यावरण और विस्थापन का सवाल उठाने पर ऐसे निर्मम रवैए का परिचय दिया हो। प्रधानमंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने कुडनकुलम के आंदोलन को, उसके पीछे विदेशी हाथ होने का आरोप मढ़ कर ही कुचला था। लेकिन जब बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य विधानसभा में परमाणु बिजली के खिलाफ प्रस्ताव पारित कराया, तो मनमोहन सिंह से कुछ बोलते न बना। स्वयंसेवी संगठनों को बाहर से मिलने वाले धन और उसके इस्तेमाल पर निगरानी के लिए विदेशी अंशदान नियमन अधिनियम है और इस कानून के तहत केंद्रीय गृह मंत्रालय उन पर नजर रखता रहा है। अगर उनकी गतिविधियां राष्ट्र-विरोधी रही हैं, तो वे इतने सालों से सरकार की निगरानी के बावजूद कैसे चलती रही हैं!  यह सही है कि कई संस्थाएं अपने विदेशी दानदाताओं पर निर्भर हैं और उनकी हिदायतों या शर्तों से संचालित होती हैं। पर उनके बारे में तभी सवाल उठाया जाता है जब उनका कोई अभियान सरकार को असुविधाजनक मालूम हो। मनमोहन सिंह सरकार को भी तभी परेशानी महसूस हुई थी जब जीएम बीजों और परमाणु बिजली के खिलाफ स्वयंसेवी संगठनों की सक्रियता सामने आई। पर मोदी सरकार कुछ कदम और आगे जाती दिख रही है। आइबी ने अपनी रिपोर्ट में जिन संस्थाओं पर संदेह का हथियार चलाया है उनमें गुजरात के दंगा-पीड़ितों के लिए आवाज उठाने से लेकर मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले पीयूसीएल जैसे संगठन भी शामिल हैं। 
स्वयंसेवी संगठनों में ऐसे भी बहुत-से हैं जो किसी तरह का विदेशी चंदा नहीं लेते, कुछ सरकारी अनुदान से भी काम करते हैं। लेकिन आइबी ने सबको एक पाले में रखते हुए सभी की तरफ शक की सुई घुमा दी है। विभिन्न गैर-सरकारी संस्थाएं अलग-अलग किसी खास मुद््दे पर केंद्रित रह कर अपनी गतिविधियां चलाती हैं, इसलिए उनका अपने मुद्दे पर बहुत जोर होता है, और इस क्रम में उनकी तरफ से दूसरे पहलुओं की अनदेखी हो सकती है। पर पर्यावरण का पक्ष लेना गुनाह कैसे है? क्या पता कल नर्मदा बांध की ऊंचाई बढ़ाने का विरोध करने वालों पर भी शक जताया जाए। मोदी सरकार को एक महीना भी नहीं हुआ कि नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण ने नर्मदा बांध की ऊंचाई बढ़ाने की मंजूरी दे दी, जबकि पहले के सभी विस्थापितों का पुनर्वास नहीं हो पाया है। भिन्न या वैकल्पिक प्राथमिकताओं को देश-विरोधी मानना दमनकारी नजरिया है।

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